JPSC MAINS EXAM NOTES पेपर 3 भूगोल टॉपिक(भारत में मृदा अपरदन) Q & A हिंदी में Q & A हिंदी में free download pdf

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प्रश्न – भारत में मृदा अपरदन के प्रमुख भौतिक एवम सांस्कृतिक कारण बताईये |

(what are the physical and cultural factors responsible for soil erosion in india.)

उत्तर – जब वायु, जल, हिम, लहरें एवं अन्य कारणों से मृदा नष्ट हो जाती है। यानि अनुर्वर एवं अनुपयोगी हो जाती है तो इस स्थिति को मृदा अपरदन कहते हैं। मृदा अपरदन वस्तुतः मिट्टी की सबसे ऊपरी परत का क्षय होना है। सबसे ऊपरी परत का क्षय होने का अर्थ है- समस्त व्यावहारिक प्रक्रियाओं हेतु मिट्टी का बेकार हो जाना। भारत के 60 मिलियन क्षेत्र में से लगभग 146 मिलियन हेक्टेअर क्षेत्र भूमि अपरदन की समस्या से ग्रस्त है। देश को लगभग 8,000 हे. भूमि प्रतिवर्ष बीहड़ बन जाती है। भारत की भूमि में से 80,000 हेक्टेअर भूमि अब तक बेकार हो गई है और इससे भी बड़ा क्षेत्र प्रतिवर्ष मृदा अपरदन के कारण कम उत्पादक हो जाता है। मृदा अपरदन भारतीय कृषि को लिए एक राष्ट्रीय संकट बन गया है। भारत के विभिन्न भागों में मृदा अपरदन के भिन्न-भिन्न कारण हैं इसे निम्न रूप से स्पष्ट किया जा सकता है :

 

1. भौतिक कारण- इसके अन्तर्गत निम्न कारणों को जिम्मेवार माना जा सकता है-

(i) भूमि स्खलन द्वारा- आधार शैलों या आवरण प्रस्तर (Regolith) का भारी मात्र में तेजी से खिसकना ही भू-स्खलन है। जब पर्वतीय ढाल तीव्र हैं तब बड़े भीषण भू-स्खलन की संभावना होती है। भू-स्खलन भूकंपों एवं ज्वालामुखी विस्फोटों के झटके द्वारा शैल संरचनाओं को विस्थापित कर गिरा देने पर होता है।

भू-स्खलन के कारण :

भूकंपों एवं ज्वालामुखीय विस्फोटों के झटके द्वारा शैल संरचनाओं को विस्थापित कर देने। नदी अपरदन के परिणामस्वरूप ढाल के आधार के और अधिक तेज हो जाने।

• पर्वतीय ढालों पर चट्टानों के बीच में भरे जल के जमने और पिघलने से चट्टानों के टूटने और ढालों पर नीचे की ओर खिसकने ।

मुलायम पारगम्य चट्टानों में रिसकर जमा हुए हिम या बर्फ या जल का बोझ भी पर्वतीय ढालों पर चट्टानों के टूटने और खिसकने ।

समुद्र तट के निकट प्रायः समुद्री लहरें भृगुओं के आधार को काट देती हैं। इस प्रकार आधार पर कटे भृगु आगे की निकले हुए झूलते रहते हैं और एक दिन टूट कर गिर जाते हैं।

हिमालय, पश्चिमी घाट एवं नदी-घाटियों में प्रायः भू-स्खलन के कारण मृदा अपरदन होती है वनावरण विहीन पर्वतीय क्षेत्रों में भारी वर्षा के दौरान मृदा अपरदन और अधिक तीव्र होता है।

(ii) अवनालिका अपरदन- समतल अथवा उबड़-खाबड़ प्रदेशों में जल के तीव्र प्रवाह के कारण मिट्टी कटकर जल के साथ बह जाती है तथा बड़े-बड़े खड्ड का विकास हो गया है। यमुना और चम्बल के बीहड़ों में जो व्यापक रूप से भूमि कटाव होता है वह इसका सबल प्रमाण है।

 (iii) पवन अपरदन- शुष्क एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों में जहाँ वर्षा काफी कम होती है। साथ ही जल के अन्य सतही स्रोतों का भी अभाव रहता है तो वहाँ मिट्टी की ऊपरी परत शुष्य अथवा ढीली होती है जब तीव्र पवन उस प्रदेश से गुजरता है तो ऊपरी असंगठित धूल-कणों को अपने साथ अन्यत्र बहाकर ले जाता है। इसे पवन अपरदन कहते हैं। राजस्थान का परिचमांत्तर क्षेत्र, पंजाब का पटियाला क्षेत्र तथा हरियाणा के गुड़गाँव, हिसार एवं करनाल क्षेत्रों में रेतीली जमीन के कारण पवन अपरदन अधिकता से होते है।

(iv) नदी एवं समुद्रतटीय भू-क्षरण- उत्तरी भारत की नदियाँ अभी भी स्थायी मार्गों का निर्माण नहीं कर सकी हैं। फलतः मैदानी क्षेत्रों में क्षैतिज अपरदन द्वारा यह बार-बार अपने मार्ग बदलती रहती हैं। इस दौरान तीव्र मृदा अपरदन होता है। इसी प्रकार समुद्री तटिय  क्षेत्रों में ज्वार-भाटा, समुद्री तरंग भी मृदा अपरदन का प्रमुख कारण है। इस प्रकार का अपरदन उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश, केरल, तमिलनाडु के तटवर्ती क्षेत्रों में होता है।

(v) वर्षा की प्रकृति एवं वितरण- मूसलाधार वर्षा  की स्थिति में धरती को जल सोखने का अवसर नहीं मिलता और भारी अपरदन होता रहता है।

2. सांस्कृतिक या मानवीय कारण- इसके अन्तर्गत निम्न कारक प्रमुख है :-

(i) पशुओं द्वारा अतिचारण- जिन स्थानों पर पशुओं की संख्या अधिक और चरागाह सीमित हैं वहाँ निरंतर चराई से दो तरह की हानियाँ होती है- पहली, घास आवरण में कमी, दूसरी, पशुओं के खुरों से मिट्टी का कटाव भेड़-बकरी आदि घास को जड़ से निकाल लेते हैं और पुनः घास 'उगने में काफी समय लग जाता है। जंगली पशु ढालों पर उगनेवाली वनस्पति को खा लेते हैं। मैदानी तथा पर्वतीय दोनों क्षेत्रों में पशुओं द्वारा अतिचराई के कारण मिट्टी से वनस्पति का आवरण नष्ट होता जाता है फलत: वर्षा एवं

पवन द्वारा मृदा अपरदन होने लगता है।

(ii) कृषि की गलत पद्धतियाँ- आदिम जनजातियों द्वारा स्थानांतरी कृषि या झूम कृषि के क्रम में निरंतर वनों का काटा जाना मृदा अपरदन का एक प्रमुख कारण है। असम, बिहार तथा मध्यप्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों की 30 लाख हेक्टेयर भूमि इसी कृषि पद्धति के अन्तर्गत है। इसके अतिरिक्त खेतों के चारों ओर मेड़बंदी का अभाव, पर्वतीय क्षेत्रों में ढाल की दिशा में खेतों की जुताई यानी समोच्च रेखाओं के अनुरूप जोत का अभाव, दोषयुक्त फसल चक्र के कारण भी मृदा अपरदन को बल मिलता है।

(iii) वन विनाश- आधुनिकीकरण के क्रम में वन संपदा के अनियंत्रित दोहन, इमारती लकड़ी, फर्नीचर, ईंधन आदि के लिए वृक्षों को काटने से निर्वनीकरण की समस्या उत्पन्न होती है। वनस्पति की जड़ें मृदा संगठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है वनविहीन क्षेत्रों में पानी की बूँदों का प्रभाव भूमि पर सीधे रूप में होता है। अतः यहाँ तीव्र अपरदन होता है।

 (iv) जनसंख्या वृद्धि - भारत में तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के कारण वनों को काटकर कृषि भूमि के अन्तर्गत तथा आवासीय भूमि के अन्तर्गत लाया जाता है इससे भी मृदा अपरदन की क्रिया प्रोत्साहित होती है।





 

 

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